What is disease according to Naturopathy?

 प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि में तीव्र रोग  

What is disease according to Naturopathy?
प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि में तीव्र रोग  

तीव्र रोग शत्रु नहीं, मित्र

प्रकृति हमें स्वस्थ रखने के लिए हर क्षण प्रयत्नशील रहती है। अतः प्राकृतिक नियमों का पालन करने पर हम कभी बीमार नहीं पड़ सकते। प्राकृतिक नियमों पर चलते रहने की अनिवार्यता प्राकृतिक उपचार पद्धति का आधारभूत सिद्धांत है। अन्य पद्धतियों में रोग होने पर ही उपचार द्वारा ठीक कराने की बात आती है, परंतु चिकित्सा पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का यह मानना है कि मनुष्य प्राकृतिक नियमों का पालन करेगा, तो बीमार पड़ने की नौबत ही नहीं आएगी। यदि रोग हो भी जाए, तो पंचतत्त्वों के उपचार (औषधिहीन उपचार) से ही कम समय में पुनः स्वस्थ हो सकते हैं।

रोग क्या है ?

रोग प्रतिरोधक क्षमता (जीवनीशक्ति) कम होने पर शरीर में विजातीय द्रव्य (तत्त्व) पैदा हो जाना ही रोग का कारण है। जब तक शरीर में पर्याप्त जीवनीशक्ति (वायटलिटी) है, तब तक विजातीय द्रव्य पैदा होने पर भी उसे शरीर से बाहर निकाल देने का कार्य जीवनीशक्ति करती है। जब वह घटती है, तब विजातीय द्रव्य (फारेन मेटर) शरीर के अंदर ही रुका रहकर शरीर के आवश्यक अंगों की कार्यप्रणाली को बाधित करता है, फलतः किसी-न-किसी नाम रूप मे वह सामने आता है, जिसे हम रोग कहते हैं। विजातीय द्रव्य बाहर निकालने वाले चार मार्ग


प्रकृति ने विजातीय द्रव्य बाहर निकालने के लिए चार मार्ग दिए हैं - 

(1) फेफड़ा, (2) त्वचा, (3) गुरदा और (4) बड़ी आँत। फेफड़ा ऑक्सीजन ग्रहण करता तथा कार्बन डाई ऑक्साइड के रूप में विजातीय तत्त्व बाहर निकालता है एवं रक्त की शुद्धि करता है। त्वचा रोमछिद्रों से पसीने के रूप में तथा दोनों गुरदे खून को छानकर हानिकारक त्याज्य तत्त्वों को मूत्र के रूप में नली द्वारा बाहर निकालते हैं। बड़ी आँत विजातीय ठोस पदार्थ मल को गुदा द्वारा बाहर निकालती है। यह प्रकृति का साधारण प्रबंध है। 

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प्रकृति का असाधारण प्रबंध - 

जब प्रकृतिप्रदत्त इन चार रास्तों से विजातीय द्रव्य शरीर बाहर नहीं निकाल पाता, तब प्रकृति पाँचवाँ मार्ग चुनती है, जिसे हम तीव्र रोग कहते हैं। वह पाँचवाँ मार्ग फोड़े-फुंसी, सरदी-जुकाम, उलटी-दस्त, बुखार आदि के रूप में हो सकता है। इन तीव्र रोगों को ही हम शत्रु मान बैठते हैं। वस्तुतः यह प्रकृति का शरीर-शोधन का प्रयास भर है। प्रकृति हमारे शरीर को नीरोगी बनाने के लिए ऐसा करती है। ऐसे समय में धैर्यपूर्वक प्रकृति के कार्य में सहयोग करना चाहिए। यदि इतना कर्त्तव्य निभा लिया जाए, तो कम समय में हम पुनः स्वस्थ हो सकते हैं। यदि हम रोग के लक्षणों को दबाने वाली चिकित्सा द्वारा प्रकृति के इन प्रयत्नों को रोकते हैं, तो दूसरे नाम-रूप में वह दबा हुआ रोग जीर्ण रोग (पुराना) के रूप में जीवन भर के लिए कष्ट देता रहेगा। जिस प्रकार दस्त रोकने पर पेट संबंधी रोग कोलाइटिस, जीर्ण कब्ज, सरदी जुकाम आदि को रोकने या दबाने पर फेफड़े संबंधी रोग जैसे दमा (अस्थमा), ब्रोंकाइटिस, फोड़ा-फुंसी दबाने पर एक्जिमा आदि त्वचा रोग। दवा द्वारा रोग को दबाने पर उसी प्रकार की स्थिति होती है, जिस प्रकार कीचड़ को धूल से ढक दिया गया हो, जब भी उस पर कोई भार पड़ेगा, तो वह कीचड़ बाहर दिखाई देगी।

उपचार में दूरदर्शिता :  

चिकित्सा का मूल प्रयोजन केवल तात्कालिक कष्ट-निवारण ही नहीं, वरन रोग के मूल कारण को के खोजना और उसका निराकरण करना होना चाहिए। प्राकृतिक चिकित्साविधि तथा विशुद्ध आयुर्वेद का प्रारंभिक प्रयास इसी दिशा में चलता है। संसार के समस्त जीव-जंतु जब अस्वस्थ होते हैं, तब प्राकृतिक रोगनिवारक शक्ति द्वारा वह स्वयं उपचार कर लेते हैं। मनुष्य के लिए भी यह राजमार्ग खुला हुआ है। एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के मूल में ही कुछ दोष रह गया है और उस मूल दोष का निवारण किए बिना गलत आधार पर चिकित्सा विज्ञान को अग्रसर किया जा रहा है। अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी अन्वेषणों और आविष्कारों की धूम है, पर परिणाम प्रतिकूल ही सिद्ध होता चला जा रहा है। तत्काल कुछ समय के लिए कष्ट कम कर देना मात्र चिकित्सा विज्ञान की सफलता नहीं है। ऐसा तो कोई जादूगर भी कर सकता है। पीड़ित स्थान को सुन्न करके या दिमाग की पीड़ा अनुभव करने की क्षमता से वंचित करने वाले नशीले पदार्थों के आधार पर तुरंत कष्ट कम कर देने का प्रयोजन पूरा हो सकता है, पर इससे लाभ क्या हुआ? बीमारी दूसरे रूप में फूट पड़ी और चिरस्थायी बन गई, तो ऐसा इलाज किस काम का रहा? यह ठीक वैसा ही हुआ कि पेड़ के पत्ते को सींचते रहे, जड़ को सींचा ही नहीं। अंततः पेड़ मुरझाकार सूखेगा ही।


आधुनिक चिकित्सा विज्ञान रोग के मूल कारण असंयम को रोकने तथा स्वास्थ्य-रक्षा की शिक्षा तथा व्यवस्था पर जोर देने की अपेक्षा ऐसी दवाएँ प्रस्तुत करने में लगा हुआ है, जो बीमारी के कीटाणुओं को मारने के साथ-साथ जीवनरक्षक स्वस्थ कणों को भी समान रूप से मारती है। ऐसी विषाक्त औषधियाँ बन रही हैं, जिनके कारण नया रोग उत्पन्न हो जाने से लगता है कि मानो पुराना रोग चला गया है।


औषधि अन्वेषण क्षेत्र में भी इन्हीं आधारों पर खोज हो रही है और नित नए इंजेक्शन, कैप्सूल निकलते चले आ रहे हैं । औषधि विक्रेताओं को अत्यधिक नफा होता है। रोगी को तात्कालिक लाभ कराने में अपना धंधा चमकते देख डॉक्टर भी उस प्रयत्न को प्रोत्साहित करते हैं। घाटे में बेचारा रोगी रहता है, जिसका पैसा भी जाता है, शरीर भी खराब होता है और इलाज की आशा से नई व्यवस्था के जंजाल में जकड़ जाता है। जादू की तरह कुछ समय कष्ट हलका कर देने के लालच में उसे जो चरस्थायी हानि उठानी पड़ती है, उसे दूरदर्शिता के साथ देखा, समझा जाए, तो प्रतीत होता है कि यह क्या चिकित्सा हुई ? इससे स्वास्थ्य-लाभ का मूल प्रयोजन कहाँ सिद्ध हुआ ?


तीव्र रोगों में क्या करें ?


(1) रोगी को शुद्ध खुली हवा में पर्याप्त विश्राम कराएं


(2) रोग की तीव्र अवस्था में ठोस भोजन (आहार) देने से शरीर के सफाई कार्य में लगी वनीशक्ति को पाचन का कार्य भी करना पड़ेगा। अतः विष निष्कासन का कार्य ठीक प्रकार से नहीं पाएगा, इसलिए तीव्र रोगों में ठोस भोजन बंद कर दिया जाए।


(3) पानी पर्याप्त मात्रा में दिया जाए। यदि रोगी को अम्ल-पित्त (एसीडिटी) की शिकायत हो, तो नीबू निचोड़कर पानी में मिलाकर रोगी को देते रहें, इससे शरीर की शुद्धि में सहायता मिलेगी। 


(4) रोगी को कब्ज हो, तो आँत शुद्धि के लिए प्राकृतिक उपाय किए जाएँ।


(5) रोगी की स्थिति 1-2 दिन भूखे रह सकने की न हो, तो फलों का रस या हरी सब्जियों का सूप एक गिलास प्रत्येक 4 घंटे के अंतर से दिया जा सकता है।


(6) रोगी के शरीर में पानी की कमी न हो, इसका विशेष रूप से ध्यान रखा जाए। उलटी-दस्त, बुखार आदि में नीबू का रस पानी के साथ प्यास न लगने पर भी पर्याप्त देते रहें। सरदी-जुकाम में गरम पानी में नीबू निचोड़कर दिया जा सकता है। 


(7) रोग की तीव्रता घटने पर रोगी को 1- 2 दिन फलों का रस, सूप, उसके बाद 1 - 2 दिन फलाहार फिर क्रमश: उबली हरी सब्जी तथा धीरे धीरे 1-1 रोटी प्रतिदिन बढ़ाते हुए 5- 6 दिन में पूर्णाहार लेने का क्रम अपनाना चाहिए।


(8) तीव्र रोगों में उपरोक्त क्रम अपनाने के साथ ही प्राकृतिक उपचार भी लिए जाएँ, तो अधिक लाभप्रद होगा। 


• प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि तीव्र रोगों में सही आहार-विहार को ध्यान में न रखकर रोगी के परिजन उसे ठोस भोजन ग्रहण करने के लिए विवश करते हैं, जिससे रोग बिगड़ जाता बुखार में ठोस 



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